Wednesday, September 22, 2010

चतुर गुन्हेगाराने नामवंत महिला पोलीस अधिकार्‍याला चकविले.

बिकीनी किलर या नावाने कुप्रसिद्ध असणारा चार्ल्स शोभराज गुन्हेगारी पेक्षाही जास्त स्मरणात राहिला तो त्याच्या प्रभावी व्यक्तिमत्वामुळेच. साधारण पंचवीस वर्षांपूर्वी चार्ल्स दिल्लीच्या तिहार तुरुंगात होता तेव्हा त्याच्या संभाषण कौशल्याने साक्षात किरण बेदी देखील अतिशय प्रभावित झाल्या. त्यांनी त्याला त्याच्या ज्ञानाचा (?) प्रसार करण्यासाठी इलेक्ट्रॊनिक टाईपरायटरसह इतर अनेक अद्ययावत सुविधा तुरूंगात पुरविण्याची व्यवस्था केली. तरी बरं त्याकाळी संगणक किंवा इंटरनेट नव्हता नाहीतर या गोष्टीदेखील त्याला सहज मिळाल्या असत्या. प्रत्यक्षात काहीही लिखाण वगैरे न करता या महाभागाने तुरूंगातील आपलं वास्तव्य फक्त आरामदायी करून घेतलं. आपल्याला चार्ल्सने बनविले हे किरण बेदींच्या फारच उशिरा लक्षात आले.

Tuesday, September 21, 2010

काव्या विश्वनाथनची वाङ्मयचोरीची कबुली

काव्या विश्वनाथन या किशोरवयीन भारतीय वंशाच्या लेखिकेने आपण वाङ्मयचोरी केल्याचे कबूल केले आहे. तिच्या 'हाऊ ओपल मेहता गॉट किस' आणि 'गॉट वाइल्ड अँड गॉट अ लाइफ' या पुस्तकाचे हक्क अमेरिकन प्रकाशन कंपनी लिटल ब्राऊनने पाच लाख डॉलरना खरेदी केल्यानंतर अनेक वृत्तपत्रांनी तिच्यावर स्तुतीसुमने उधळली होती.

परंतु तिच्या या पुस्तकांचे मेगॅन एफ मॅककॅर्फ्टी यांच्या 'स्लोपी र्फस्ट्स' आणि 'सेकंड हेल्पिंग' या दोन्ही पुस्तकांशी सार्धम्य असल्याचे उघडकीस आल्याने काव्याने आपली वाङ्मयचोरी कबूल केली. परंतु, ते योगायोगाने घडून आले, शाळेत असताना ही पुस्तके वाचल्याने लिहिताना त्यातील भाग अनवधानाने आला, अशी पुस्तीही तिने जोडली.

ही वर्ष २००६ ची घटना आहे.

दैनिक लोकसत्तामधली बातमी इथे वाचा (प्रथम फॊन्ट लोड करून घ्या):-
http://www.loksatta.com/old/daily/20060427/mp05.htm

चोरी है काम मेरा

भारतीय सिनेमा में कुछ ऐसी फिल्में हैं, जिनके लिए कहा जाता है कि उन्होंने हिंदी सिनेमा का इतिहास बदल दिया, पर वास्तविकता कुछ और है. दरअसल इसके लिए निर्देशक-लेखक को बधाई नहीं दी जानी चाहिए. शक्ति सामंत की फिल्म आराधना के गीतों ने न जाने कितने युवाओं के मन में अपने सपनों की रानी की कल्पना को शक्ल दे दी थी. उस दौर के युवकों ने न जाने कितनी हसीनाओं को रूप तेरा मस्ताना गीत सुनाकर दिल दिया होगा. इस फिल्म ने उस दौर के आशिकों के दिल में इश्क़ की आग लगा दी थी, लेकिन यह फिल्म शक्ति दा का ओरिजनल कांसेप्ट न होकर हॉलीवुड की टू इच हीज ऑन की नक़ल मात्र थी. इसी तरह ऋषिकेश मुखर्जी द्वारा निर्देशित फिल्म अभिमान ने जया बच्चन को फिल्मफेयर बेस्ट एक्ट्रेस का पुरस्कार दिलवाया था. यह फिल्म ए स्टार इज बॉर्न की नक़ल थी. 90 के दशक में महेश भट्ट की सुपरहिट फिल्म साथी से पाकिस्तानी क्रिकेटर मोहसिन खान एवं आदित्य पंचोली स्टार बन गए थे. जबकि साथी को मिलने वाली सफलता और अवार्ड के सही हक़दार स्कारफेस के लेखक थे, क्योंकि यह सुपरहिट फिल्म भी एक नक़ल थी.

नरेंद्र बेदी की खोटे सिक्के एवं फिरोज़ खान की धर्मात्मा से लेकर रामू की सरकार जैसी फिल्मों को हिंदी सिनेमा में क्रांतिकारी बदलाव लाने के लिए याद किया जाता है, लेकिन यह सारे बदलाव दूसरे मुल्क़ों की कहानियों को चुराकर किए गए. 1980 में ऋृ षि कपूर स्टारर फिल्म क़र्ज़ ने सुभाष घई को शीर्ष निर्देशकों की कतार में लाकर खड़ा कर दिया, लेकिन तब शायद ही कोई जानता होगा कि यह फिल्म 1960 में आई हॉलीवुड फिल्म द रिइंकारनेशन ऑफ पीटर प्राउड की नक़ल थी. रवि चोपड़ा द्वारा निर्देशित फिल्म द बर्निंग ट्रेन वर्ष 1975 में आई जापानी फिल्म द शिंकनसेन दैबाकुहा की नक़ल थी. अशोक कुमार की हास्य पटकथा वाली बासु चटर्जी द्वारा निर्देशित फिल्म शौक़ीन हॉलीवुड की फिल्म द ब्वॉयज नाइट आउट की नक़ल थी. राकेश रोशन द्वारा निर्देशित फिल्म खून भरी मांग, जिसे तीन फिल्म फेयर अवार्ड मिले, वह भी ऑस्ट्रेलियन लघु फिल्म रिटर्न टू एडेन से प्रेरित थी. मुकुल आनंद द्वारा निर्देशित फिल्म अग्निपथ को दो फिल्मफेयर अवार्ड मिले और बेस्ट एक्टिंग के लिए अमिताभ बच्चन को नेशनल फिल्म अवार्ड मिला, जिसके हक़दार वे लोग कतई नहीं थे. निर्देशक संजय ग़ढवी के मुताबिक़ अमेरिका में अच्छे लेखक हैं, जबकि यहां अच्छे लेखकों की कमी है, इसलिए प्रेरणा लेने में कोई बुराई नहीं है. ग़ौरतलब है कि उनकी फिल्म मेरे यार की शादी है, जूलिया रॉबटर्‌‌स की सुपरहिट फिल्म माई बेस्ट फ्रेंड्‌स वेडिंग की नक़ल थी. बॉलीवुड में कलाकारों के कॉस्ट्यूम और नाच-गाने पर ज़्यादा ध्यान दिया जाता है, जबकि हॉलीवुड में फिल्म की स्क्रिप्ट और प्रोडक्शन हाउस ज़्यादा मायने रखते हैं. बॉलीवुड में वेस्टर्न फिल्मों की नक़ल का स़िर्फ नए लोग ही नहीं करते बल्कि इस मामले में इंटेलिजेंट इडियट आमिर खान भी पीछे नहीं है. उनकी सुपरहिट फिल्म गजनी बॉलीवुड की पहली ऐसी फिल्म थी, जिसने बॉक्स ऑफिस पर एक बिलियन रुपये से अधिक का कारोबार किया. यह फिल्म साउथ की सूर्या स्टारर गजनी की रीमेक थी और साउथ वाली गजनी हॉलीवुड फिल्म मोमेंटो की नक़ल थी. मतलब वही चोरी का क़िस्सा. ग़ौरतलब है कि मोमेंटो को वर्ष 2002 में बेस्ट स्क्रीनप्ले के लिए नामांकित किया गया था. बॉलीवुड की नक़ल करने की इस आदत पर वर्ष 2006 में फोर स्टेप प्लान नामक एक डॉक्यूमेंट्री भी बनी.

वर्ष 1940 में आई महबूब खान की फिल्म औरत को सत्रह साल बाद मदर इंडिया के नाम से दोबारा बनाया गया, वह भी वर्ष 1937 में आई हॉलीवुड फिल्म द गुड अर्थ से प्रेरित थी. बॉलीवुड की ऑल टाइम सुपरहिट फिल्म शोले का निर्माण सात हॉलीवुड फिल्मों की प्रेरणा से हुआ था. उनमें वंस अपॉन ए टाइम इन द वेस्ट (1968), स्पैगिटी वेस्टर्न, द वाइल्ड बंच (1969), पैट गैरेट एंड बिली द किड (1973) और बच कैसिडी एंड द संडेंस किड (1969) आदि प्रमुख हैं. अमिताभ बच्चन की पा 1996 में आई हॉलीवुड फिल्म जैक की नक़ल है. अक्षय कुमार की आने वाली फिल्म एक्शन रिप्ले ब्रैड पिट की सुपरहिट फिल्म द क्यूरियस केस ऑफ बेंजामिन बटन से प्रेरित बताई जा रही है. हासिल फेम निर्देशक तिग्मांशु धूलिया कहते हैं कि उनकी ओरिजनल कहानी पर आधारित फिल्म को कोई भी प्रोड्यूसर फाइनेंस नहीं करना चाहता. तिग्मांशु को अपनी फिल्म के निर्माण के लिए अपने दोस्तों पर निर्भर रहना पड़ा था. इस इंडस्ट्री में स़िर्फ निर्देशकों और कहानीकारों को ही हॉलीवुड की नक़ल करने का भूत नहीं सवार है, बल्कि निर्माता भी किसी फिल्म में पैसा लगाने से पहले यह निश्चित कर लेते हैं कि अमुक फिल्म हॉलीवुड की किसी फिल्म की नक़ल है या नहीं. ऐसी सैकड़ों फिल्में हैं, जिन्हें हॉलीवुड की फिल्मों से नक़ल करके तैयार किया गया है. इन फिल्मों के हिट हो जाने के बाद निर्देशक, निर्माता और कलाकार पुरस्कार लेने के लिए कतार में खड़े नज़र आते हैं. इनमें से कइयों को अवार्ड मिल भी जाते हैं. पुरस्कार क्या, पद्मश्री तक मिल जाती है. अवार्ड देने से पहले और बाद में ज्यूरी मेंबर यह सोचने की ज़हमत तक नहीं उठाते कि क्या सचमुच यह लोग इन पुरस्कारों के हक़दार हैं भी या नहीं.

उधर का माल इधर

अभिमान 1973- ए स्टार इज बॉर्न 1954

धर्मात्मा 1975- द गॉड फादर 1972

रफूचक्कर 1975- सम लाइक इट हॉट 1959

क़र्ज़ 1980- द रिइंकारनेशन ऑफ पीटर प्राउड 1960

द बर्निंग ट्रेन 1980- द शिंकनसेन दैबाकुहा 1975

शौक़ीन 1981- द ब्वॉयज नाइट आउट 1962

जांबाज़ 1981- डुअल इन द सन 1946

सत्ते पे सत्ता 1982- सेवन ब्राइड्‌स फॉर सेवन ब्रदर्स 1954

खून भरी मांग 1988- रिटर्न टू एडेन 1983

तेज़ाब 1988- स्ट्रीट्‌स ऑफ फायर 1984

साथी 1990- स्कारफेस 1983

दिल है कि मानता नहीं 1991- इट हैपंड वन नाइट 1934

जो जीता वही सिकंदर 1992- बे्रकिंग अवे 1979

चमत्कार 1992- ब्लैक बियडर्‌‌स गोस्ट 1968

बाज़ीगर 1993- ए किस बिफोर डाइंग 1991

खलनायिका 1993- द हैंड दैट रॉक्स द क्रौडल 1992

मैं खिलाड़ी तू अनाड़ी 1994- द हार्ड वे 1991

अकेले हम अकेले तुम 1995- क्रैमर वर्सेस क्रैमर 1979

याराना 1995 - स्लीपिंग विथ एनेमी 1991

पापी गुड़िया 1996- चाइल्ड्‌र्स प्ले 1988

चोर मचाए शोर 1997- ब्लू स्ट्रीक

गुलाम 1998- ऑन द वाटर फ्रंट 1954

दुश्मन 1998- आई फॉर एन आई 1996

मोहब्बतें 2000- डेड पोएट्‌स सोसाइटी 1989

क़सूर 2001- जैग्ड ऐज 1985

कांटे 2002- रिजर्वायर डॉग्स 1992

राज़ 2002- वाट लायज बिनिथ 2000

धूम 2003- द फास्ट एंड द फ्यूरियस 2001 एवं ओसियंस एलेवन 2001

जिस्म 2003- बॉडी हीट 1981

कोई मिल गया 2003- ई. टी. द एक्सट्रा टेरेसट्रियल 1982

हम तुम 2004- वेन हैरी मेट सैली 1989

मुन्ना भाई एमबीबीएस 2003- पैच एडम्स 1998

मर्डर 2004- अनफेथफुल 2002

सलाम नमस्ते 2005- नाइन मंथ्स 1995

ब्लैक 2005- द मिराकल वर्कर 1962

बंटी और बबली 2005- बोनी एंड क्लायड 1967

सरकार 2005- द गॉड फादर 1972

रंग दे बसंती 2006- ऑल माई संस 1948 एवं जीसस ऑफ मांट्रील 1989

कृष 2006- पे चेक 2003

चक दे इंडिया 2007- मिराकल 2004

भेजा फ्राई 2007- डिनर डे कॉन्स 1998

लाइफ इन ए मेट्रो 2007- द अपार्टमेंट 1960

हे बेबी 2007- थ्री मेन एंड अ बेबी 1987

वेलकम 2007- मिक्की ब्लू आइज 1999

सिंह इज किंग 2008- मिराकल्स 1989

दोस्ताना 2008- नाउ प्रोनाउंस यू चक एंड लैरी 2007

युवराज 2008- रेन मैन 1988


गीत चोरी का आरोप कितना सच

प्रख्यात गायक भूपेन हजारिका द्वारा गाई गई रचना- गंगा तुम बहती हो क्यों, उनकी मौलिक कृति नहीं है. उन्होंने संगीत रचना एवं गीत की भावनाएं अमेरिकी कलाकार की एक मशहूर रचना से कॉपी की थी. यह रहस्योघाट्‌न अमेरिका में रह रहे एक भारतीय मुकेश थामस ने पिछले दिनों दोनों संगीत प्रस्तुतियों के गहन अध्ययन के बाद किया है.

वर्ष 1927 में अमेरिका के संगीतकार जूलियस ब्लेडसो की एक संगीत रचना ओल्ड मेन रिवर ऑफ शो वोट संगीत के इतिहास की एक अमर कृति है. इस कृति के जनक को इस संगीत रचना के लिए अमेरिका ही नहीं, समूचे यूरोप में हमेशा से स्मरण किया जाता रहा है. आज से डेढ़ दशक पूर्व इंटरनेट की सुविधा न होने की वजह से अंतरराष्ट्रीय गतिविधियों पर शोध कर पाना भारत में संभव नहीं था. भूपेंन हजारिका ने अपनी रचना-विस्तार है आपार, की प्रस्तुति के दौरान कभी भी किसी भी मंच पर यह घोषणा नहीं की कि गंगा उनकी मौलिक रचना नहीं है.


उन्होंने कभी भी अमेरिका के प्रख्यात संगीतकार जूलियस ब्लेडसो का नाम नहीं लिया. पूरे भारत में, गंगा तुम बहती हो क्यों रचना भूपेन हजारिका द्वारा लिपिवद्ध, संगीतवद्ध और गाई गई रचना के रूप में जानी जाती है. जूलियस के इस चर्चित गीत को अमेरिका के कई कलाकारों ने विभिन्न मंचों पर गाया है. इसके अलावा कई टीवी कार्यक्रमों में भी यह गीत उपयोग किया गया है. पालाबिंसन ने 1928, 1932 एवं 1936 में इस गीत को फिल्म में चित्रित किया है. बिंग क्रासवी, फ्रैड सिनड्रा, सैम कुक, अल जानसन, रेचार्ल्स, जिम क्रोस, जिमी रिक्स ने इसे अमेरिकी शास्त्रीय संगीत के प्रमुख गीत के रूप में स्वीकार किया था. मेल्विन फैडलिन ने तो इस गीत को कई महफिलों में गाया था. जुड़ी गारलैंड ने भी इस गीत को अपना स्वर दिया था.

मुकेश थामस के अनुसार, भूपेन हजारिका ने अपनी पीएचडी की डिग्री कोलंबिया यूनिवर्सिटी से पूरी की थी. इस अध्ययन के दौरान वे पाल रॉबिंसन जैसे गायक के सहयोगी भी रहे थे. इस दौर में भूपेन हजारिका ने जो गीत सीखे उनका प्रदर्शन उन्होंने अपने शेष जीवन की संगीत रचनाओं में भारत में रहकर किया था. भूपेन हजारिका द्वारा गाई गई रचना- गंगा तुम बहती हो क्यों, भारत के संगीत जगत में एक नया अध्याय जोड़ने वाली कृति के रूप में याद की जाती है. स्वरों के उतार चढ़ाव और भाषा की मौलिकता इस गीत की खूबी है. मूल रूप से गाई गई जूलियस ब्लेडसे की रचना भी मिसीसिपी नदी पर आधारित है. इस गीत के भाव को महसूस करने के बाद भूपेन की रचना चोरी की गई प्रतीत होती है.

मुकेश थामस इन दिनों अमेरिका में रह कर भारतीय संगीत पर यूरोपीय प्रभाव का व्यापक अध्ययन कर रहे हैं. उनका दावा है कि भूपेन हजारिका के बारे में इस तरह के खुलासे से भारतीय संगीत प्रेमियों को आघात लग सकता है, लेकिन यही सच्चाई है.

हुशार विद्यार्थी (?)

वर्तमानपत्रात कुठल्याही विद्यार्थ्यांच्या यशाबद्दल काही छापून आलं की माझी आई ते मला मुद्दाम वाचून दाखविते मग त्या विद्यार्थ्यांचा कौतुक सोहळा, त्या विद्यार्थ्यांना काहीच साधन उपलब्धता नसताना त्यांनी मिळविलेलं अपार यश आणि त्या तूलनेत माझ्याकडे सारं काही असताना मी कसा अपयशी वगैरे गुर्‍हाळ दोन चार दिवस तरी आमच्या घरी चालतंच.

एकदा असंच पेपरात नाव आलं कचरू वाघ या विद्यार्थ्याचं. या गरीब विद्यार्थ्याने दिवसभर कष्टाची कामे करून, रात्रशाळेत अभ्यास करून बोर्डाच्या परीक्षेत घवघवीत यश मिळविलं होतं. झालं.. कचरूच्या नावाचा जप आमच्या घरी चालु झाला. अर्थात ह्यावेळी जप दोन दिवसातच थांबला कारण वर्तमानपत्राच्या पुढच्याच अंकात बातमी आली ती अशी की कचरूने स्वत: पेपर लिहीलेच नव्हते तर स्वत:ऐवजी पूर्णवेळ शिक्षण घेतलेल्या एका हुशार अल्पवयीन विद्यार्थ्याकडून ते लिहून घेतले होते.

पुढे काही काळानंतर अशीच एका पुण्यातल्या विद्यार्थिनीची (तिचं नाव आता आठवत नाही) बातमी आली - ती सीए ची परीक्षा पहिल्या क्रमांकाने उत्तीर्ण झाल्याची. तिचे लगेच सत्कार वगैरे ही झाले पण दोन दिवसानंतर उघड झालं की ती प्रत्यक्षात अनुत्तीर्ण झाली होती तरी तिने खोटे निकालपत्र वगैरे गोष्टी अगदी व्यवस्थित पैदा केल्या व सर्वांना दोन दिवस चकविले.

या सर्वांवर कडी म्हणजे विद्या प्रकाश काळे ही युवती. ही प्रत्यक्षात खरोखरच अतिशय हुशार आहे. आता ही साधारण पस्तीशीची असेल पण वयाच्या जेमतेम अठराव्या वर्षापासून ती चोर्‍या करण्यात पटाईत आहे. वेळोवेळी तुरूंगात ही गेली आहे तर अनेकदा पोलिसांना तिने गुंगारा ही दिला आहे. आता तिने स्वत:ची मोठी टोळीही स्थापन केली आहे. तुरूंगातील वास्तव्यात तिने आपल्या हुशारीच्या जोरावर कायद्याचे शिक्षणही पूर्ण केले आहे. अर्थात वकील झाल्यावर ती पुढे अनेकदा पोलिसांकडून पकडली गेली असली तरी तिला फारशी कडक शिक्षा होऊ शकली नाही याचे सारे श्रेय तिच्या वकिली कौशल्याला जाते.

तिच्या विषयीची एक बातमी तुम्ही इथे वाचू शकता :-

http://72.78.249.126/esakal/20100522/5736895754452919648.htm

इतर अनेक चोर्‍यांप्रमाणे हिने वय देखील चोरलेले दिसतंय.. बातम्यांमध्ये वय कमी दाखवलंय..

http://www.punenews.net/2010/05/lawyer-woman-run-gang-arrested-for.html

http://www.expressindia.com/latest-news/woman-among-five-arrested-for-robbery-plot/621283/

http://news.in.msn.com/crimefile/article.aspx?cp-documentid=3924613&page=10

http://news.indiainfo.com/c-83-144953-1263496.html

विद्याचा सुरूवातीच्या काळातील पराक्रम (मोटरसायकलकरिता लहान मुलीचे अपहरण):-

http://www.indianexpress.com/ie/daily/19971213/34750503.html

खरं कारण काय?

नोकरीनिमित्ताने केलेल्या माझ्या बेळगावच्या वास्तव्यादरम्यान माझा सिमेन्स, मुंबईच्या एका अधिकार्‍याशी परिचय झाला. हे गृहस्थ (ह्यांच्या नावाची इनिशिअल्स एसबी. पुढे ह्यांचा असाच उल्लेख केला जाईल) मोठे रसिक आणि कलासक्त (आणि मुख्य म्हणजे देव आनंद चे ग्रेट फॆन) त्यामुळे आमच्या गप्पा मस्त रंगायच्या. कलाक्षेत्रातल्या अनेक मंडळींना ते जवळून ओळखतात हे मला त्यांच्याशी बोलताना समजले. त्याचे कारण विचारताच त्यांनी सांगितले ती अमूक एक गायिका - ती ह्यांची आत्या (इथे नाव लिहीत नाही पण पुढे जे वर्णन येईल त्यावरून चाणाक्ष वाचक ओळखतीलच म्हणा..).

आता एसबी साहेबांचा स्वभाव एकदम मनमोकळा त्यामुळे माझ्या मनात अनेक वर्षांपासून खदखदत असलेला प्रश्न त्यांना विचारावा असे मला वाटले. आणि अगदी सहजच बोलल्यासारखा मी त्यांना म्हणालो, "एसबी साहेब, तुमच्या आत्याचा आवाज अगदी हुबेहूब लता मंगेशकरांसारखा आहे, पण लताजींच्या तूलनेत त्यांनी फारच थोडी गाणी गायलीत. गेली अनेक वर्षे मी असं ऐकत / वाचत आलोय की लताजींनी राजकारण करून तुमच्या आत्याबाईंना पुढे येऊ दिलं नाही. याशिवाय काही काळापूर्वी वर्तमानपत्रात तुमच्या आत्याबाईंची मुलाखत वाचली तेव्हा त्यांनी या गोष्टीचा साफ इन्कार केलाय. त्या म्हणतात ’माझ्या व्यावसायिक पिछाडी बद्दल दुसर्‍या कुणाला जबाबदार धरले जाऊ नये. मी मागे पडले कारण माझे लग्न झाले, संसार चालु झाला. ज्याप्रमाणे एखादी नोकरी करणारी स्त्री लग्नानंतर प्रापंचिक जबाबदार्‍यांमुळे नोकरी सोडते तितक्याच सहजतेने मी गाणे सोडले’. मग आता तुम्हीच सांगा खरं कारण काय? तुमच्या आत्याबाईंची कारकीर्द नेमकी कशामुळे संपुष्टात आली?"

एसबी साहेब उत्तरले, "त्याचं असं आहे चेतन, ही दोन्ही कारणं तितकीच खोटी आहेत. खरी गोष्ट अशी की आमच्या आत्याचे नाव त्याकाळच्या एका नामांकित हिन्दी-मराठी चित्रपटांच्या संगीतकाराबरोबर (यांचंही नाव इथे मी लिहू शकणार नाही पण वाचक अंदाज लावू शकतात) जोडले जाऊ लागले होते व त्यात काही प्रमाणात तथ्यदेखील होते याची प्रचीती आल्यावर आत्याच्या यजमानांनी आमच्या आत्याचं गाणं बंद करायला लावलं. आता आमची आत्या मुलाखतीत तिची व्यावसायिक कारकीर्द संपुष्टात येण्याच हे खरं कारण कुठल्या तोंडानं सांगणार?"

आता एक उलट उदाहरण (म्हणजे काळ्या प्रकरणाची रूपेरी बाजू)

२००४ सालच्या विधानसभा निवडणूकीनंतर लोकसत्ता ने त्यांच्या वाचकांसाठी एक स्पर्धा घोषित केली सरकारकडून माझ्या अपेक्षा या विषयावर लेख लिहायचा. निवडक लेखकांना थेट मुख्यमंत्र्यांशी एक तास चर्चा करायची संधी असले भन्नाट बक्षीस होते. माझा लेख ही निवडला गेला आणि जानेवारी २००५ मध्ये वर्षा बंगल्यावर श्री. विलासराव देशमुखांच्या माझ्या सह इतर आठ पत्र लेखकांनी भेट घेतली. चर्चेच्या दरम्यान देशमुख साहेब अगदी रंगात येऊन एक किस्सा सांगू लागले.

ते म्हणाले, "तुम्हाला वाटतं पण बरेचदा आम्हा राजकारणी लोकांना देखील नोकरशाहीचा भोंगळ कारभार दिसतो पण त्याविरुद्ध काही करता येत नाही. मागे एकदा मी शिक्षणमंत्री असताना माझ्या हस्ते ४ थी च्या विद्यार्थ्यांना पुस्तक वाटपाचा कार्यक्रम झाला. पुस्तक मिळाल्याची पोच म्हणून त्या कार्यक्रमात चक्क विद्यार्थ्यांचा अंगठा उमटवला जात होता. चौथीच्या विद्यार्थ्याचा अंगठा का घ्यावा का लागतो? त्याला सही करता येत नाही का? आणि तसे असेल तर मग तो विद्यार्थी वाचणार तरी काय? तर हे सगळे असे असून ही मी संबंधित अधिकार्‍याला जाब विचारू शकलो नाही कारण मलाही मर्यादा होत्या आणि आहेत."

एवढे बोलून देशमुखसाहेब थांबले. सर्व पत्र लेखक थक्क झाले होते. स्वत: मुख्यमंत्री च प्रशासनाविरुद्ध बोलत होते ही अतिशय catchy बाब होती.

त्यावेळी मी मुख्यमंत्र्यांची परवानगी घेऊन त्यांना याच प्रकरणाची दुसरी बाजू ऐकविली ती अशी:-

मी म्हणालो, "सर, आपण जसे पुस्तक वाटप केले होते अशाच एका कपडे / अन्न वाटप कार्यक्रमात बिहार येथे मी एक निरीक्षक या नात्याने एका सेवाभावी सामाजिक संस्थेतर्फे काम पाहिले होते. या कार्यक्रमात देखील ज्यांना वस्तूचे वाटप करण्यात आले अशांपैकी अनेक लहान मुले व स्त्रिया यांना लिहीता वाचता येत असूनही आम्ही त्यांना स्वाक्षरी करू दिली नाही व त्यांच्या अंगठ्याचे ठसे च नोंदीकरता घेण्यात आले कारण या नव्याने अक्षर ओळख झालेल्यांना स्वाक्षरी करायला दोन ते तीन मिनीटे लागतात आणि वाटप ज्यांच्या हस्ते व्हायचेय अशा व्यक्ती आपल्या सारख्याच मोठ्या पदावरील असल्याने त्यांना फारसा वेळ नसतो. अंगठा लावण्याचे काम काही सेकंदात होते म्हणून ते जास्त व्यवहार्य ठरते. तेव्हा याचा अर्थ असा नव्हे की ज्या विद्यार्थ्यांना आपण पुस्तके वाटली ती निरक्षर होती. तरी कृपया आपण संबंधित अधिकार्‍यांविषयी कुठलाही आकस मनात बाळगू नये व त्यांची अडचण समजून घ्यावी ही विनंती."


माझ्या या उत्तराने सारेच चकित झाले व मुख्यमंत्र्यांनीही आपल्याला ही माहिती नवीन व मोलाची वाटली असल्याचे कबूल केले त्याचप्रमाणे ते वस्तुस्थितीशी सहमत झाले..

डोळ्यात येते पाणी

१९६२ साली आपण चीन सोबत चे युद्ध हारलो तरी आपले जे जवान सीमेवर लढले त्यांचे मनोधैर्य उंचावण्याकरिता आणि जे रणांगणात शहीद झाले त्यांना श्रद्धांजली वाहण्याकरिता सरकारी पातळीवर एका कार्यक्रमाचे आयोजन करण्यात आले. त्या समारंभाला साजेसे एक गीत बसविण्याची जबाबदारी संगीतकार सी. रामचंद्र यांच्यावर देण्यात आली. हे गीत लता मंगेशकर गाणार हे निश्चित झाले तरी ते लिहीणार कोण हा प्रश्न होताच. तेव्हा सर्व नामवंत गीतकार चित्रपटासाठी गीत लिहीण्यात व्यग्र होते अचानक सी. रामचंद्र यांच्यासमोर कवी प्रदीप यांचे नाव आले. कवी प्रदीप यांच्या तत्वज्ञानानी भारलेल्या गीतांना व्यावसायिक चित्रपटात फारशी मागणी नव्हती त्यामुळे सी. रामचंद्रांनी त्यांचेकडून बरेच दिवसात कुठलेही गीत लिहून घेतले नव्हते. जेव्हा या सरकारी कार्यक्रमाकरिता गीताची मागणी रामचंद्रांनी प्रदीप यांचेकडे केली तेव्हा कवी प्रदीप उसळून म्हणाले, "मानधन मिळायचे असेल तेव्हा तुम्हाला माझी आठवण येत नाही आणि अशा फुकटछाप सरकारी कार्यक्रमाकरिता मी गीत लिहून द्यावे असा तुमचा आग्रह का? मी हे काम मुळीच स्वीकारणार नाही."

मोठ्या कष्टाने सी. रामचंद्र यांनी कवी प्रदीप यांची समजूत काढण्यात यश मिळविले आणि सरतेशेवटी त्यांच्याकडून एक लांबलचक गीत लिहून घेतलेच. ऐ मेरे वतन के लोगो, जरा आंखमे भरलो पानी या गीताची ही सून्न करणारी बाजू काही वर्षांपूर्वी लोकसत्तात वाचली आणि एका वेगळ्याच अर्थाने डोळे भरून आले.

एका चित्रपटाच्या निर्मितीखर्चात दोन चित्रपट

अशोक कुमार यांनी चित्रपटनिर्मिती करायला घेतली तेव्हा त्यांनी आपल्याच राज्यातील एका प्रतिभासंपन्न दिग्दर्शकाला संधी दिली. त्या दिग्दर्शकानेही या संधीचे सोने केले आणि सुंदर चित्रपट बनविला परिणीता पण त्याबरोबरच अशोककुमार यांनी चित्रपटनिर्मितीकरिता दिलेल्या आर्थिक स्वातंत्र्याचा गैरफायदा घेत स्वत:च्या आवडीचा अजून एक चित्रपट अशोककुमार यांच्या पैशातूनच बनविला जो प्रचंड गाजला. त्यांनी खोटे हिशेब दाखवून परिणीताच्या निर्मितीखर्चात गाळा मारून अशोक कुमार यांची फसवणूक करून हे कृत्य केले होते. दिग्दर्शक बिमल रॊय यांच्या दो बिघा जमीन या चित्रपटाची ही चक्रावून टाकणारी निर्मिती कथा अशोक कुमार यांनी त्यांच्या जीवननैया या आत्मचरित्रात्मक पुस्तकात नमूद केली आहे.